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सिंधुताई सपकाल - mother of orphans

    जलती अर्थी पर रोटी सेक कर खाने वाली स्त्री को आखिर क्यों चार राष्ट्रपतियों ने सम्मानित किया?

             मंजिल बहुत दूर है ,जाना वहां जरूर है                        रास्ता मुश्किल है ,मौत भी मंजूर है।

  दूसरों के लिए जीने का ऐसा अनोखा जज्बा

  जिंदगी तो सभी जीते हैं परस्तिथितिवश संघर्ष भी करते हैं। पर जीने का ऐसा जज्बा। जिसके खुद के पास खाने को निवाला ना हो, तन पर कपड़ा ना हो , सिर पर छत ना हो लेकिन बेसहारों को सहारा दे । वो भी अपनी संतान को त्याग कर हजारों बच्चों की मां बन जाए। ऐसा साहस सहज देखने को नहीं मिलता। आज मिलते हैं महाराष्ट्र की माई सिंधु सपकाल से।
                     

चिन्दी का बचपन

14 नवंबर 1948 को महाराष्ट्र के एक गरीब परिवार में लड़की का जन्म हुआ। जिसका स्वागत 'चिंदी' नाम से किया गया। चिंदी अर्थात फटा हुआ कपड़ा, चिंदी अर्थात कपड़े के ऐसे चिथड़े जिन्हें कोई चाहता ही ना हो। नाम से ही स्पष्ट है चिंदी का बचपन कितने स्नेह पूर्ण वातावरण में बीता होगा ।  चिंदी घर के काम में मां का हाथ बटाती ,दिन में भैंस चराती ।समय निकालकर किसी तरह स्कूल चली जाती पढ़ाई में बहुत मन लगता था लेकिन एक दिन चिंदी की मां ने उसके पिता से कहा "पढ़ - लिखकर कौन सा इसको दिल्ली जाना है ज्यादा पढ़ लेगी तो कौन इससे शादी करेगा? लड़का ढूंढो और ससुराल भेजो यही हमारे समाज की रीत है । इसके साथ भी यही होगा।" चिंदी मायूस थी। पढ़ना चाहती थी। पर उसकी भावनाओं का कहां किसी को ख्याल था? 

बाल विवाह और ससुराल का अनुभव


10 साल की बच्ची की शादी 35 साल के आदमी से कर दी गई । चिन्दी ससुराल गई और शोषणकारी सामाजिक व्यवस्था का शिकार बन गई । जहां विश्वास किया जाता था कि' 3 दिन में एक बार पत्नी को जरूर पीटना चाहिए ।' खैर! चिंदी को मलाल नहीं था क्योंकि वह बच्ची थी । और वहाँ सबके साथ तो यही हो रहा था ।दिन यूं ही गुजर रहे थे। चिंदी घर का सारा काम करती। दिन में  जब पति  भैंस चराने जाते तो रास्ते में गोबर बटोरती, कहीं कोई कागज का टुकड़ा मिल जाता तो चिंदी उठाकर पढ़ने लगती। यह सब उसके पति को बिल्कुल नहीं पसंद था क्योंकि वह तो  बिल्कुल अनपढ़ और उसकी पत्नी पढ़ लेती थी। चौथी कक्षा पास थी। चिन्दी का पति कागज का टुकड़ा जला देता या फाड़ कर फेंक देता। चिंदी का कलेजा तो कागज के साथ ही जलता। फिर पति की मार भी सहनी पड़ती। बच्ची को शौक तो था ना ! तो वह कागज उठाती, पढ़ती और पति ना देख पाए इसलिए खा जाती। 

  वन विभाग से लड़ाई


चिन्दी जब 20 वर्ष की हो गई तब गर्भवती थी फिर भी जिम्मेदारियां तो निभानी ही थीं।वन विभाग वाले रास्ते से बटोरा हुआ गोबर तो ले जाते लेकिन मजदूरी नहीं देते। इसके लिए चिंदी ने मजदूरी की मांग की। नहीं सुनी गई तो वह अधिकारियों से जूझते हुए अपनी बात वन मंत्री तक पहुंचाने में सफल हुई ।
                           

चिंदी के प्रयासों से गोबर बटोरने वाली महिलाओं को मजदूरी मिलने लगी और गोबर वन विभाग के लोग ले जाते रहे।

गौशाला में बच्ची को जन्म दिया

मजदूरी मिलने से बहुत से लोगों का भला हुआ। लेकिन किसी एक को तो बुरा लगा। उस शख्स ने बदला लेने के लिए चिन्दी के पति से कहा "तुम्हारी पत्नी के गर्भ में मेरी संतान है। " लाख समझाने पर भी पति को चिन्दी पर यकीन नही हुआ । उसने चिंदी को बहुत पीटा और मरा समझकर गौशाला में घसीट कर ले गया।
                       

 वहां की सारी गाय खोल दी और चला गया। ताकि अगर प्राण बच भी गए हों तो गाय के पैरों तले कुचल कर निकल जायँ।चिन्दी को जब होश आया तो उसने देखा उसके पास में एक गाय खड़ी है। जो चिल्ला-चिल्ला कर बाकी की गायों को पास आने से रोक रही है। अब तक चिंदी बेहोशी में अपनी बेटी को जन्म दे चुकी थी। उसने उठकर गाय को गले लगाया और शपथ ली "जब परिवार ने ठुकरा दिया तब तुमने गाय होकर मां का फर्ज निभाया। मेरा वादा है जब तक जान है मां का फर्ज निभाऊंगी।"
                             

अब समस्या थी बच्ची का जन्म तो हो गया लेकिन उसके जन्म नाल को कैसे अलग किया जाए? चिंदी ने पास पड़े पत्थर को उठाया बच्ची को देखा। मन दर्द से भर गया पर, क्या करती? कोई और रास्ता भी तो नहीं था। उसने पत्थर से नाल को पीटना शुरू किया। साथ ही अपने प्रहार को गिनती रही। 16 बार मारने पर बच्चे का नाल अलग हुआ। नाल को वही गाड़ कर नदी में जाकर स्नान किया। नवजात को भी स्नान कराया। और सोचा 'जब जन्म का नाम इतना मजबूत है तो मैं हार कैसे सकती हूं?'

 आत्महत्या का प्रयास


 चिन्दी अपने मायके चली गई । जहां मां ने कहा " लड़की एक बार ससुराल जाती है तो फिर चार कंधों पर ही वहां से निकलती है। तूने अपना ससुराल छोड़ा है। हमारे घर में भी तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।" चिंदी को लगा जैसे सब खत्म। जीवन का कोई मतलब नहीं । वह रेलवे पटरी पर आई और बैठकर रेल का इंतजार करने लगी। कुछ समय बाद रेल आने वाली थी तो पटरी में वाइब्रेशन हो रहा था सहसा चिन्दी की नजर अपनी बच्ची पर पड़ी। मन में आया 'इसका क्या कसूर है ?अभी मरना कैंसिल। जो होगा देख लेंगे।'
        वह रेलवे स्टेशन पहुंची देखा । कुछ भिखारी बैठकर गाना गा रहे हैं तो उन्हें खाना मिलता है। भूख लगी थी तो चिंदी भी वहीं बैठ कर भजन गाने लगी। उसे जो भी खाने को मिलता भिखारियों के साथ बांट लेती। दिन इसी तरह गुजरने लगे। लेकिन रात में डर लगता कि कोई उसकी असहाय युवावस्था को दूषित ना कर दे? चिंदी ने सुना था शमशान में रात में कोई नहीं जाता। बस उसने अपना ठिकाना ढूंढ लिया। अब वह स्टेशन पर बैठकर गाना गाने के साथ ही ट्रेन में घूम घूम कर भी गाने लगी। कई बार टीसी गाड़ी से भगा देता तो दूसरी गाड़ी में चढ़ जाती। भजन से भोजन मिलता और शमशान से सुरक्षा।

चिता पर सेक कर रोटी खायी

एक रोज चिंदी को भिक्षा में आटा मिला, पका हुआ भोजन नहीं। फिर जब चिंदी शमशान गई तो वहां कोई नहीं था लेकिन एक चिता अभी तक सुलग रही थी उसने सुलगती चिता पर रोटी सेकी। वह रोटी खा रही थी तभी श्मशान में पक्षी और कुत्ते जोर-जोर से एक साथ चिल्लाने लगे। चिन्दी को लगा मानो वो कह रहे हैं कि शमशान में खाना हमारा अधिकार है।चिन्दी रोज ही शमशान में रात गुजारती लेकिन उस रोज़ पहली बार चिन्दी को डर लगा।
                 

रात 2:00 बजे करीब वह उठी और सोचने लगी 'कैसे इस तरह यह बच्ची बड़ी हो पाएगी? नहीं, अब और नहीं मैं जिंदगी का बोझ और नहीं उठा सकती।'बच्ची को गोद में लेकर चिंदी अपनी जीवन लीला समाप्त करने चल पड़ी। तभी उसे लगा रास्ते में कोई कह रहा है।" अरे बाबा! मेरा कोई नहीं है।मै भिखारी हूं। मैं मरने वाला हूं। कोई पानी पिला दे।" चिन्दी उस आवाज की तरफ बढ़ी तो देखा एक भिखारी जमीन पर पड़ा चिल्ला रहा था। उसने भिखारी से बोला "बाबा पानी पीके क्यों मरोगे? मरना ही है तो रोटी खा कर मरो ना? मेरे पास रोटी है।लो खा लो।"
किसी ने क्या खूब कहा है

         यारों ,कफ़न मे कोई जेब नही होती।

          और मौत कभी रिशवत नही लेती।।

                               
 भिखारी दर्द से कराह रहा था। चिंदी ने भिखारी का माथा स्पर्श किया तो पता लगा कि भिखारी  तेज बुखार से तप रहा था। चिंदी ने रोटी को अपने हाथ से भिखारी को खिलायी।पानी पिलाया । और सोचा 'मरने जा रही हो और दूसरों को बचाने की कोशिश कर रही हो।' फिलहाल अब चिन्दी के मन में संतुष्टि थी तो वह वापस शमशान में चली गई।

अद्भुत रिश्ते की शुरुआत


   दिन यूं ही गुजर रहे थे। नदी नाले में स्नान करना फिर स्टेशन जाकर भजन गाना। भिक्षा मांगना। चिंदी को स्टेशन पर कुछ अनाथ बच्चे मिले चिन्दी उनकी देखरेख करने लगी।जो भी भिक्षा में मिलता अनाथों के साथ मिलकर खाती। जिनके पास कपड़ा नहीं होता उनके कपड़ों का इंतजाम करने का प्रयास करती। और एक ऐसा रिश्ता बन जाता जो मां बच्चे का ना होकर भी उसी गर्माहट का एहसास कराता। इसी तरह एक परिवार बन गया। लेकिन परिवार के लिए ज्यादा भोजन की आवश्यकता थी। जिसे पूरा करने के लिए चिंदी पता करती कहीं कीर्तन तो नहीं हो रहा है?और अगर उसे उस स्थान का पता लग जाता जहां कीर्तन हो रहा हो तो वहां जाकर भजन गाती और बदले में अपने परिवार के लिए भोजन लेकर आती।

सिन्धु सपकाल का पुनर्जन्म

            एक दिन चिंदी को कीर्तन गाने दूसरे शहर में जाना था। मौसम बहुत खराब था। तेज बारिश, कड़कती बिजली लेकिन मौसम की परवाह किसे थी? वह तो बस रेल के डिब्बे में बैठ गई। टीसी आया उसने चिंदी को उतारने की कोशिश की। चिंदी ने कहा "आप भले ही मेरी टिकट बना दे। पास के शहर ही तो जाना है लेकिन मैं जाऊंगी तो जरूर ।" चिंदी के फटे वस्त्र देखकर टीसी उसे ना तो टिकट दे रहा था। और ना ही बिना टिकट बैठने दे रहा था। वह तो बस उस भिखारिणी को नीचे उतार देना चाहता था। चिंदी अपनी जिद पर अड़ी थी। वह टीसी से लड़ने लगी। आखिर इतने  दिनों से भरा हुआ मन अब उबाल ले रहा था ।तभी एक भिखारी जैसा दिखने वाला आदमी चिन्दी के पास आकर बोला "रात को स्टेशन पर आप ही गाना गा रही थी। मैं सुन रहा था। माई बहुत अच्छा गाती हो ।मेरे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है पर क्या माई आप मेरी एक चाय पियोगी?" चिंदी का मन द्रवित हो गया। कीर्तन सुनकर एक भिखारी भी मेरी मदद करना चाहता है। चिंदी ने कहा "जरूर पियूंगी चाय"और चिन्दी उस भिखारी के साथ चल पड़ी। अभी  कुछ कदम ही चल सकी थी।उधर ट्रेन अपने गेट की तरफ बढ़ने लगी। तभी बिजली उसी डिब्बे पर गिरी और डिब्बे में बैठे टीसी और यात्री में से कोई नहीं बचा। इतनी तेज आवाज सुनकर कुछ पल बाद जब चिंदी सम्हली तो उसने देखा उसके साथ वाला भिखारी अब वहां नहीं है। चिंदी ने बहुत ढूंढा पर वह स्टेशन पर कहीं नहीं मिला।चिन्दी  को लगा "अभी  डिब्बे में होती तो  मर गई होती। भगवान ने तुझे बचाया है तो तू चिंदी नहीं हो सकती। जिसे कोई ना चाहता हो। आज से तेरा नाम सिंधु सपकाल होगा। सिंधु जिसमें लहर होती है,तरंग होती है,उमंग होती है और सबको  समाहित करने की शक्ति। चिंदी मर गई यह जीवन सिंधु सपकाल का है। जो उनके लिए जिएगी जिनका कोई नहीं।"
                   

अपनी संतान को त्यागने का कठोर निर्णय

     
   नये जन्म के साथ सिन्धु ने जीवन का उद्देश्य तो पा लिया लेकिन सिंधु को डर था। कहीं वह अपनी बच्ची की ममता में उसके बनाए परिवार  के बच्चों के साथ भेदभाव ना कर बैठे। सिंधु ने दिल दहला देने वाला कठोर निर्णय लिया। अपनी बच्ची को त्यागने का निर्णय सिंधु ने पुणे के एक ट्रस्ट से संपर्क किया। और अपनी बच्ची को वहां छोड़ दिया।अब सिंधु बच्चों के भोजन,शिक्षा की व्यवस्था करने लगी। एक आदिवासी बस्ती में रहती। कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर। आदिवासियों ने मिलकर परिवार के लिए एक झोपड़े की व्यवस्था की। लेकिन एक दिन तेज तूफान में झोपड़ी उड़ गई। खैर! किसी तरह दिन गुजरते रहे। सिन्धु समय-समय पर अपनी बच्ची से मिलने पूना जाती ।
     

बेटी के अनुभव

  एक दिन सिंधु की बच्ची से टीचर ने पूछा "आप कितने भाई बहन हो?" बच्ची अपनी उंगली पर गिन कर बताने लग गयी। 17, 18 ,19  क्लास के सभी बच्चे जोर-जोर से हंसने लगे। पर उन मासूमों को नहीं पता था। उस बच्ची का दिल बहुत बड़ा है। उसे इतना ही पता था। मां ने जिसे गोद ले लिया वे  सब उसके भाई -बहन हैं। सिंधु की बेटी ने ट्रस्ट की देखभाल में हायर एजुकेशन ली।
  इधर सिंधु अपने बच्चों के जीने की व्यवस्था करने के साथ ही उनकी शिक्षा के बारे में भी सतर्क रहती। उन्हें प्रेरित करती। आपको पढ़ना ही है। और तब तक पढ़ना है जब तक जीवन में आत्मनिर्भर नहीं हो जाते ।सिंधु के बच्चों में कई बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, लॉयर ,प्रोफ़ेसर, नर्स, टीचर, बिजनेसमैन हैं।
 Wilma Rudolph..magic of will power

सफलता के कुछ लम्हे

 परिवार बड़ा होकर संस्था का रूप ले चुका है। सिंधु आज भी हर उस बच्चे की मां बनने के लिए तैयार रहती हैं। जिसका कोई नहीं होता। वर्ष 2009 में सिंधु सपकाल को अमेरिका में मराठा साहित्य सम्मेलन में आमंत्रित किया गया । सिंधु वहां गई । लेकिन भाषण देने से पहले उन्हें घबराहट हुई। लगा कि 'मैं क्या बोलूंगी अमेरिका में ?' अगले ही पल मन में साहस जुटाया और सोचा 'मैं जिस देश से आई हूं उसे मां कहते हैं ।मां ,भारत माता । उसकी लाज तो रखनी ही है।' सिंधु ने स्टेज पर अपने अनुभव साझा किए और उनकी वह यात्रा सफल रही ।।                       
     अमेरिका की यात्रा के बाद सिंधु सपकाल  महाराष्ट्र में  सिंधु ताई के नाम से जानी जाने लगी।  तब उन पर 2010 में निदेशक अनंत नारायण महादेवन  के निर्देशन में 'सिंधु सपकाल'के नाम से  मराठी फिल्म बनी।
 सिन्धु  के जीवन पर बनने वाली इस फिल्म को  नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ।
                 सिंधु सपकाल को हमारे देश के 4 राष्ट्रपतियों - डॉ एपीजे अब्दुल कलाम , श्रीमती प्रतिभा पाटिल, प्रणब मुखर्जी ,रामनाथ कोविंद ने सम्मानित किया।

   
         अब तक सिंधु के हजारों बच्चे हैं। लगभग 300 दामाद और 100 के करीब बहुएँ हैं। 800 के करीबपुरस्कार हैं।लेकिन विडंबना देखिए। आज भी इस माई को जिसने खुद भिक्षा मांगकर दर-दर की ठोकर खाकर अनाथो को सहारा दिया हो। सम्मानपूर्वक जीने के लायक बनाया हो। 800 से ज्यादा पुरस्कार मिल चुके हैं। राष्ट्रपति सम्मानित कर चुके हैं। लेकिन उनके संस्था सन्मति बाल निकेतन को ग्रांट नहीं मिली।
 

पति को भी बच्चा बनाया


 सिंधु का परिवार एक दूसरे का सहारा बनकर आगे बढ़ रहा था। एक रोज सिंधु के पति सिंधु के पास आए और सिंधु से अश्रुपूर्ण नैनों से साथ चलने की गुजारिश करने लगे। सिंधु ने अपने पल्लू से उनके आंसू पौंछे। और कहा " आपकी हालत बहुत खराब है। तब मैं रोई थी। आज आप रो रहे हैं । तब मेरी साड़ी फटी थी। आज आपकी धोती फ़टी है। अब 50-50 हो गया।  मैं आपके साथ नहीं आ सकती लेकिन आप चाहें तो मेरे घर रह सकते हैं। बस एक ही शर्त है आपको मेरा बच्चा बनना होगा। मैं आपकी पत्नी नहीं बन सकती। मुझे बस एक ही रिश्ता पता है। मां बच्चे का रिश्ता। मैं बस एक ही रिश्ता जीती हूं । मां बच्चे का रिश्ता। " सिंधु के पति सिंधु के घर में रहने लगे लेकिन उनके बच्चों के मन में कोफ्त थी कि इस आदमी की वजह से सिंधु ताई को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी तो सिंधु ताई ने अपने बच्चों से कहा "अगर यह आदमी मुझे पीड़ा नहीं देता। प्रताड़ित नहीं करता तो आपको मां कहां से मिलती ? अब यह परिवार का हिस्सा है। उनका ख्याल रखना है।" आज सिंधु के पति दुनिया में नहीं है लेकिन इस घटना ने सिंधु के बच्चों को सिखाया 'किसी को कैसे माफ करते हैं?'
आज भी सिंधु सपकाल अलग-अलग स्थानों पर भाषण देती हैं। अपने जीवन के अनुभव साझा करती हैं । उन्हें प्रेरणा देती हैं ।

"जीवन में कुछ भी हो जाए  हार मत मानो  जीवन में सबसे महत्वपूर्ण  खुद जीवन ही है।"

Arunima Sinha- story in hindi

सिन्धु ताई लोगों के सामने झोली फैला कर अनुरोध करती हैं "मै अनाथ बच्चों की मां बनी आप रिश्तेदार बनिए और अपनी कमाई से कुछ हिस्सा इन बच्चों के लिए दान दीजिए।" इसी तरह से यह संस्था चल रही है। हालांकि फ़िल्म बनने के बाद सिंधु सपकाल को लोग जानने लगे हैं। अब लोग उनकी पहले से ज्यादा मदद करते हैं।
      चलिए दोस्तों देखते हैं साहस,ताकत,जज्बा, जिजीविषा की इस मिसाल माई से हम क्या सीख सकते हैं?

1-   चिंदी ने जिस तरह गाय से वादा किया और आगे बढ़ी ।उससे हम सीख सकते हैं कि जीवन में जो भी परिस्थिति हो उसका सामना करो । जो मदद करें उसके आभारी रहो और जीवन खुद-ब-खुद महान हो जाएगा।
   
2-   बुखार में तपते प्यासे भिखारी की मदद करके आत्महत्या का विचार खुद ही खत्म हो गया। ठीक उसी तरह जब लगे जीवन से हार चुके हैं तब किसी की मदद करना खुद का सबसे बड़ा सहारा बन जाता है।और किसी का सहारा बनना जीवन में नई कलियां खिला देता है नई ऊर्जा भर देता है।
     
3-  अमेरिका में भाषण से पहले माई ने कैसे अपने डर को काबू में किया?  इससे हम सीख सकते हैं कि जब कभी भय आशंका से सामना हो तो अपने कदम निरंतर आगे बढ़ाओ कुछ ही पल में देखोगे नया सवेरा, सफलता का सवेरा पलकें बिछाए बैठा है।
     
4-  सिन्धु ताई ने जान से मारने की कोशिश करने वाले पति को भी क्षमा किया और वृद्धावस्था मे सहारा दिया। दूसरो को माफ़ करने से अपने दिल का ईबोझ  कम होता है। हमारे साथ किसी ने कितना भी गलत क्यों न किया ?लेकिन अगर उसे अपनी गलती का एहसास हो तो सहर्ष माफ कर देना चाहिए।
     
5 - सिन्धु सपकाल कहती हैं "जीवन में अँधेरा छाने लगे तो किसी के पास उजाला माँगने मत जाओ..अपने उजाले का खुद निर्माण करो...इतना उजाला बनाओ कि दुनिया खुद ब खुद तुम्हे ढूंढती तुम्हारे पास आ जाए।" मतलब अपनी मदद खुद करो..साहस के साथ आगे बढ़ो...अगर इरादे नेक हुए ...तो आपको सफल होने से कोई नही रोक सकता।

6- सबसे महत्वपूर्ण बात वास्तविक शिक्षा जीवन की पाठशाला से ही मिलती है। परिस्थितियां सबसे बेहतर शिक्षक होतीं हैं। इसलिए कठिन परिस्थितियों में घबराना नहीं चाहिए बल्कि उनकी सकारात्मक पहलू को देखकर उनका स्वागत करना चाहिए।

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Comments

My Mainpuri said…
प्रेरणादायक जीवन ।।। बेहतर लेखन ।
My Mainpuri said…
प्रेणादायक जीवन । नमन ।

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