दृढ़ इच्छाशक्ति का जादू
आपको भी लगता है जीवन में चारों तरफ अंधेरा है| समस्याएं ऐसी , जैसे लगता है कुछ बेहतर होने वाला नहीं ,कोई रोशनी की किरण दिखाई नहीं देती तो चलिए मिलते हैं एक ऐसी मिसाल से जिसने ना सिर्फ स्वयं को तपा कर सोना बनाया बल्कि जगमगाती रोशनी की किरण फैलाई जिससे हम अपनी हर समस्या से जूझने की , जीतने की सामर्थ प्राप्त कर सकते हैं-
दोस्तों बात है सन 1939 की |अमेरिका के एक बेहद गरीब परिवार मैं एक लड़की का जन्म हुआ| जिसकी माता घरों में नौकरानी और पिता कुली थे| 4 साल की उम्र में डॉक्टर ने माता-पिता को बताया "आपकी बेटी को पोलियो है और वह कभी भी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाएगी उसे जीवनभर ब्रेस का सहारा लेना पड़ेगा|"
9 साल की उम्र में इस बालिका ने अपने विद्यालय में एक दौड़ प्रतियोगिता देखी| जिसमें बच्चों को दौड़ते देख उसके मन में दौड़ने की चाह जगी| उसने घर जाकर अपनी मां से कहा "मां मैं दुनिया में सबसे तेज दौड़ना चाहती हूं "लड़की की मां धार्मिक और सकारात्मक सोच वाली महिला थी |उन्होंने कहा" बेटी संकल्प शक्ति कठिन परिश्रम और सकारात्मक सोच के दम पर तुम दुनिया में कुछ भी हासिल कर सकती हो "बस फिर क्या था |जैसे कि, लड़की ने मां के शब्दों को अपने जीवन का मंत्र बना लिया|
इस लड़की ने अपने पैरों से ब्रेस उतार कर फेंक दिया और खड़े होने का प्रयास करने लगी | वह गिरती... घायल होती ...फिर खड़ी होती..., फिर गिरती... फिर घायल होती ...फिर दर्द बर्दाश्त करती और फिर खड़ी होती |लगातार चलने वाला दर्द भरा, हिम्मत भरा सिलसिला आखिर 2 साल बाद ठहर गया |वह खड़ी हो गई ना सिर्फ खड़ी हुई चलना सीखी और अपने विद्यालय में होने वाली दौड़ प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेने लगी | चिकित्सकों के दावों को मात देने वाली इस लड़की का नाम विल्मा रुडोल्फ था|
विल्मा ने पहली बार विद्यालय की प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जिसमें वह आखिरी स्थान पर आई लेकिन वह खुश थी आखिर वह दौड़ सकी | अभी तो सफर शुरू हुआ था विभिन्न प्रतियोगिताएं होती रही और विल्मा आखिरी स्थान पर आती रही पर एक प्रतियोगिता में वह इतनी तेज जोड़ी की प्रथम स्थान पर आ गई और उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा | जैसे उसे सपने पूरे करने के लिए पर लग गए हो लेकिन प्रोफेशन धाविका बनने के लिए ट्रेनिंग की जरूरत होती है | एक गरीब परिवार की लड़की को ट्रेनिंग कहां उपलब्ध हो पाती पर कहते हैं "जब बंदा खुद की मदद करता है तो खुदा भी उसकी मदद करता है|"
15 वर्ष की उम्र में विल्मा का दाखिला स्टेट यूनिवर्सिटी में हो गया जहां उसकी मुलाकात कोच ऐड टेंपल से हुई |जिनसे विल्मा ने कहा" सर ,मैं दुनिया की सबसे तेज धाविका बनना चाहती हूं |" ऐड टेंपल को विल्मा के विषय में पता था उन्होंने बोला "तुमने अपनी इच्छाशक्ति के दम पर असंभव को संभव करके दिखाया है| दुनिया की कोई ताकत तुम्हें सबसे तेज धाविका बनने से नहीं रोक सकती| मैं तुम्हें ट्रेन करूंगा" बस फिर क्या था मां की बातों को मंत्र बना चुकी विल्मा कठिन परिश्रम करने लगी|
समय बीतता गया और परिश्रम के परीक्षण की आ चुकी थी| 1956 में ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में समर ओलंपिक में 200 मीटर दौड़ में कांस्य पदक और 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता |
फिर 1960 समर ओलंपिक जो कि इटली के रोम में हुए थे विल्मा का सामना कभी ना हारने वाली एथलीट जूथा हेन से था | पहले 100 मीटर रेस फिर 200 मीटर रेस में तो विल्मा ने आसानी से स्वर्ण पदक हासिल कर लिए | अब बारी 400 मीटर रिले रेस की थी जिसमें सबसे तेज दौड़ने वाले धावक को सबसे आखरी में दौड़ना होता है और सभी धावकों को अपने बैटन बदलने होते हैं| पहले 3 धावकों ने आसानी से अपने बैटन बदल लिए जैसे ही विल्मा की बारी आई विल्मा के हाथ से बैटन छूट गया| विल्मा ने पीछे पलटकर देखा तो हेन तेजी से आगे आ रही थी |विल्मा ने बैटन उठाया और बहुत तेज दौड़ी इतना तेज ना सिर्फ अविजित हेन पर विजय प्राप्त की बल्कि उन्हें स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया की सबसे तेज धाविका बन गई |
विल्मा भी मान सकती थी अरे! मुझे तो पोलियो है मैं तो खड़ी भी नहीं हो सकती तो फिर दौड़ना तो बिल्कुल नामुमकिन है ऐसे में दुनिया में सबसे तेज धाविका बनने का सपना कैसे देखा जा सकता है ?और फिर मुझे तो डॉक्टर ने स्पष्ट बता दिया है कि मैं कभी चल नहीं पाऊंगी|
प्यारे दोस्तों यही जादू है सकारात्मक सोच का ,परिश्रम का और इच्छाशक्ति का |कहते हैं "ना हर रात के बाद सवेरा जरूर होता है "पर राज की बात यह है कि सवेरा अपने आप नहीं होता इसके लिए सूरज को जलना होता है |हर रात सूरज तैयारी करता है ताकि वह ना सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज करा सके बल्कि दुनिया को रोशन कर सके|
अब सवाल उठता है हम तो हमेशा ही प्रेरणादायक कहानियां सुनकर प्रेरित हो जाते हैं पर बहुत जल्दी वह जोश ,वह प्रेरणा गायब हो जाती है और हम अपने लक्ष्य पर पहुंचने से पहले ही भटकने लगते हैं |आखिर कैसे हम इस प्रेरणा की ऊर्जा को अपने अंदर संरक्षित रखें? ताकि यह ऊर्जा हमें लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अबाध रूप से गतिमान रखे| इसके लिए हमें पूरी प्रक्रिया से सीख लेकर उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा | जिसमें निम्न बिंदु आपकी सहायता कर सकते हैं|
1- अपनी परिस्थितियों सीमाओं को देखो ,समझो पर इसलिए नहीं क्योंकि वह आपको रोक रहे हैं बल्कि इसलिए क्योंकि आपको उनसे ज्यादा सामर्थवान बनना है ,मजबूत बनना है|
2- हमें ना सिर्फ अपना लक्ष्य तय करना होगा बल्कि उससे भी एक कदम आगे आकर दृढ़ संकल्प लेना होगा *अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हम हर दर्द सहने के लिए तैयार रहेंगे*
3- अपने अपने लक्ष्य तक पहुंचने के रास्ते को छोटे-छोटे भागों में बांट लें और हर भाग को निश्चित समय के अंदर पूरी ईमानदारी से पूरा करें|
4- किसी ने सच ही कहा है" मन के हारे हार है मन के जीते जीत" हमें दुनिया की कोई भी ताकत तब तक नहीं हरा सकती जब तक हम खुद नहीं हार जाते हर दिन खुद से आगे निकलने की कोशिश करें कल जो था उससे बेहतर बनने का उद्देश्य प्राप्त करें
चलिए दोस्तों अब बात करते हैं कैसे कोई साधारण मानव अपने आपको महामानव श्रेणी मैं खड़ा कर देता है और बाध्य कर देता है इतिहास को अपने गरिमा में ही व्यक्तित्व रीको स्वर्णिम अक्षरों में गढ़ने के लिए |
"अपनी चुनौतियों को सीमित ना करें
बल्कि अपनी सीमाओं को चुनौती दें"
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It works for me.